संपादकीय, सोमवार, 25 नवम्बर 2019
जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कृषि अपनानी होगी
वैश्विक तपन के चलते पूरी दुनिया में जलवायु में परिवर्तन होता स्पष्ट दिखाई दे रहा है। सम्पूर्ण मानव जाति पर इसके बुरे परिणाम क्या होंगे इसका उदाहरण देश में प्याज की बढ़ती हुई कीमत से आसानी से लगाया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के चलते देश में असमय अतिवर्ष और बाढ़ से कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे प्याज उत्पादक राज्यों में प्याज की खड़ी फसल न सिर्फ खराब हुई बल्कि भण्डारित प्याज के परिवहन में देरी भी हुई। जम्मू-कश्मीर में असमय बर्फबारी से सेब से लदे बागान नष्ट हो गये यही हाल अतिवर्षा से नष्ट हुए महाराष्ट्र में अंगूर बागानों का भी रहा। इसी वर्ष केरल में अतिवर्षा और बाढ़ से वहाँ कॉफी, चाय और मसाला फसलों को नुकसान पहुँचा। बिहार राज्य का आधा भाग बाढ़ से और आधा भाग सूखा से प्रभावित रहा। दोनों ही स्थितियों में वहाँ की प्रमुख फसल धान को नुकसान पहुँचा। अतिवर्षा न सिर्फ फसलों के पौधों को खेतों में गलाकर उत्पादन प्रभावित कर रही है बल्कि कटकर खलिहान में रखे अनाज या मण्डियों में तौलने के लिए रखे अनाज को भी प्रभावित कर रही है। मध्यप्रदेश में खरीफ सत्र 2019 के दौरान हुई 52 में से 39 जिलों में जून से सितंबर माह के बीच हुई अतिवर्षा से लगभग 55 लाख किसानों की लगभग 60 लाख 47 हजार हेक्टेयर क्षेत्र की 16 हजार 270 करोड़ रुपये की फसल प्रभावित हुई है। वर्ष 1891 से 2009 के बीच भारत में 23 बार वृहद सूखा पड़ा। जलवायु परिवर्तन की प्रतिकूलता का सर्वाधिक असर कृषि क्षेत्र में सीधा दिखाई देता है। प्रत्येक फसल को विकसित होने के लिये एक उचित तापमान, उचित प्रकार की मृदा, वर्षा तथा आद्र्र्रता की आवश्यकता होती है और इनमें से किसी भी मानक में परिवर्तन होने से, फसलों की उपज प्रभावित होती है। उच्च तापमान, अनियमित वर्षा, बाढ़, अकाल, चक्रवात आदि की संख्या में बढ़ोतरी, कृषि जैव विविधता, कृषि उत्पादन यहाँ तक की दुग्ध उत्पादन के लिये भी संकट पैदा कर रहा है। बागवानी फसलें अन्य फसलों की अपेक्षा जलवायु परिवर्तन के प्रति अतिसंवेदनशील होती हैं। उच्च तापमान सब्जियों की उपज को भी प्रभावित करता है। मृदा-जल के संतुलन में अभाव आने के कारणवश सूखी मिट्टी और शुष्क होती जाएगी, जिससे सिंचाई के लिये पानी की माँग बढ़ जाएगी। इन बातों को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2004 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् ने दसवीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत 15 कृषि अनुसंधानों और ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) में 23 शोध संस्थानों के साथ कई पहलूओं पर शोध कार्य प्रारंभ किया। मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली संसद की प्राक्कलन समिति ने 'जलवायु परिवर्तन पर नेशनल एक्शन प्लान का प्रदर्शन' पर 30वीं रिपोर्ट तैयार की है। 'जलवायु परिवर्तन पर नेशनल एक्शन प्लान (एनएपीसीसी)' के तहत कुल आठ राष्ट्रीय मिशन आते हैं जिसमें कृषि भी शामिल है। समिति ने जनवरी 2019 को बताया कि अगर समय रहते प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो 2050 तक गेहूँ का उत्पादन 6 से 23 प्रतिशत तक कम हो सकता है। तापमान के हर एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि पर छह ह$जार किलो गेहूँ का उत्पादन कम हो सकता है। मक्के का भी उत्पादन 2050 तक 18 प्रतिशत कम हो सकता है। अगर भविष्य के लिए अनुकूल कदम उठाए जाएंगे तो इसका उत्पादन 21 प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है। वहीं 2020 तक जलवायु परिवर्तन की वजह से चावल का उत्पादन 4 से 6 प्रतिशत तक कम हो सकता है। हालांकि प्रभावी कदम उठाने पर चावल का उत्पादन 17 से 20 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन की वजह से खाद्य वस्तुओं की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ सकता है। कार्बन डाइ ऑक्साइड के बढऩे की वजह से अनाज में प्रोटीन की मात्रा और अन्य मिनरल्स जैसे कि जिंक और आयरन की कमी हो सकती है। आलू का उत्पादन भी 2020 तक 2.5 प्रतिशत, 2050 तक 6 प्रतिशत और 2080 तक 11 प्रतिशत कम हो सकता है। जलवायु परिवर्तन से सेब के उत्पादन पर भी काफी बुरा असर पड़ रहा है। इसी तरह दूध के उत्पादन पर भी बुरा प्रभाव पड़ सकता है। 2020 तक 1.6 मीट्रिक टन और 2050 तक 15 मीट्रिक टन दूध का उत्पादन कम हो सकता है। इस मामले में सबसे अधिक नुकसान उत्तर प्रदेश में हो सकता है। इसके बाद तमिलनाडु, राजस्थान और पश्चिम बंगाल इससे प्रभावित हो सकते हैं। तापमान बढऩे की वजह से अण्डा और मांस उत्पादन में कमी आती है। जलवायु परिवर्तन की वजह से मिट्टी का कटाव बढ़ सकता है और पानी की उपलब्धता एवं गुणवत्ता को प्रभावित करने का अनुमान है। रासायनिक खाद और कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से पर्यावरण में ग्रीनहाउस गैस की मात्रा काफी बढ़ रहा है। पराली जलाने की वजह से भी प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है। 1970 से लेकर 2014 के बीच में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 80 प्रतिशत बढ़ गया है। चावल के खेतों से 33 लाख टन मीथेन गैस का उत्सर्जन होता है। इसी तरह 0.5 से 2.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रस ऑक्साइड गैस का उत्सर्जन होता है। कुल नाइट्रस ऑक्साइड गैस का 75 से 80 प्रतिशत हिस्सा रासायनिक खाद से निकलता है। भारत में हर साल 550-550 मीट्रिक टन पराली का उत्पादन होता है, वहीं एक अन्य आकलन के हिसाब से ये आँकड़ा 600-620 मीट्रिक टन है। हर साल इसका 15.9 प्रतिशत हिस्सा जला दिया जाता है, जो कि वायु प्रदूषण को बढ़ाता है जिसका बुरा परिणाम इसी वर्ष दिल्ली और समीपस्थ एनसीआर क्षेत्र में देखने को मिला। पराली जलाने की वजह से कार्बन डाईऑक्साइड (सीओ2), मीथेन (सीएच4), कार्बन मोनोऑक्साइड (सीओ) और नाइट्रस ऑक्साइड (एनओ), जैसी ग्रीनहाउस गैस निकलती है और इसकी वजह से वैश्विक वॉॄमग होता है। एक टन धान की पराली जलाने पर 3 किलो पार्टिकुलेट मैटर (पीएम), 60 किलो कार्बन मोनोऑक्साइड, 1460 किलो कार्बन डाईऑक्साइड और 2 किलो सल्फर डाईऑक्साइड निकलता है। कुल पराली जलाने में 40 प्रतिशत हिस्सा धान का है। इसके बाद 22 प्रतिशत हिस्सा गेहूँ और 20 प्रतिशत हिस्सा गन्ने का है। कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग की वजह से वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण और जल प्रदूषण हो रहा है। गर्मी का तनाव पशुओं में अण्डाणु की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव डालता है और गर्मी से प्रभावित जानवरों के तापमान में वृद्धि भ्रूण के विकास को कम करती है जिसके परिणामस्वरूप खराब भ्रूण आरोपण और भ्रूण की मृत्यु दर में वृद्धि होती है। गर्मी और बारिश के वितरण में होने वाले परिवर्तनों से एन्थ्रेक्स, ब्लैक क्वार्टर, रक्तस्रावी सेप्टेसिमिया और वेक्टर-संबंधी रोग हो सकते हैं, जो नमी की उपस्थिति में पनपते हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा राष्ट्रीय जलवायु समुत्थान कृषि नवप्रवर्तन (एनआईसीआरए या निक्रा) नामक एक वृहत कार्यक्रम चलाया जा रहा है। इसका मुख्य उद्देश्य कृषि में होने वाले नुकसान को कम कर भारतीय कृषि के उत्थान को बढ़ावा देना है। हर जिले में एक प्रतिनिधि गाँव को चुनकर जलवायु की दृष्टि से देश भर में फैले 151 अतिसंवेदनशील जिलों में यह कार्य किया जा रहा है। किसानों को भी इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है।