डॉ. जे.आर. पटेल, डॉ. अजीत कुमार सिंह, श्रीमती रोशनी भगत
इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छत्तीसगढ़)
परिचय:- धनिया का वानस्पतिक नाम कोरिएन्ड्रम सटाइवम है। धनिया महत्वपूर्ण मसाले की फसल है जिसका बीज एवं पत्ती दोनों उपयोग में आता है। इससे आनी वाली सुगंध कोरिएन्ड्राल लिनाल्कोल अल्कोहलिक पदार्थ के कारण होता है। इसकी पत्ती में विटामिन-ए अधिक मात्रा में होता है। विटामिन सी, कैल्शियम, फॉस्फोरस तथा आयरन भी पाया जाता है।
महत्व एवं उपयोग:- धनिया की पत्तियाँ सब्जियों में सुगन्ध बढ़ाने के लिए काम आती हैं। पिसा हुआ धनिया सब्जी मसालों एवं खाद्य पदार्थों में स्वाद एवं सुगंध बढ़ाने के काम आता है। इसके बीजों को अचार, सूप, सॉस आदि में डाला जाता है। इसमें कई औषधीय गुण भी पाये जाते हैं।
जलवायु:- धनिया की खेती प्राय: हर प्रकार की जलवायु में की जा सकती है वैसे धनिया शीतल जलवायु की फसल है। सामान्यतया हल्की ठण्डी एवं गर्मी की आवश्यकता होती है। पाला वाला क्षेत्र धनिया की खेती के लिए उपयुक्त नहीं है। पाला पडऩे से फूल अधिक संख्या में प्रभावित होते हैं। केवल फसल में फूल लगने के समय अत्यधिक पाला हानिकारक होता है।
मृदा का चयन:- धनिया की खेती के लिए लवणीय, क्षारीय एवं अत्याधिक बलुई मिट्टियों को छोड़कर शेष सभी प्रकार की मिट्टियाँ इसकी खेती के लिए उपयुक्त है। जीवांशयुक्त 6.0 से 7.5 पी.एच. मान की जल निकास वाली दोमट भूमि अच्छे उत्पादन में सहायक है।
भूमि की तैयारी:- दो बार मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई फिर चार बार देशी हल या कल्टीवेटर से आड़ी-खड़ी जुताई द्वारा खेत की तैयारी किया जाना चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा लागाकर मृदा को भुरभुरी बनाना लाभप्रद होता है। पूर्व फसल के अवशेष, पौधों की जड़, नींदा, कंकड़-पत्थर इत्यादि खेत से निकाल कर खेत को समतल बनाना चाहिए। यथासंभव मिट्टी पलटने वाले हल का प्रयोग ग्रीष्मकालीन जुताई के रूप में किया जाना उचित रहता है।
मृदा सौरीकरण:- फसल बुवाई के पूर्व जून-जुलाई माह में लगभग 10-15 दिनों तक मिट्टी को मध्यम मोटे सफेद रंग के प्लास्टिक की चादर से ढंककर रखने की विधि को मृदा सौरीकरण कहा जाता है। इस उपाय से मृदा में रहने वाले फफूँदों एवं सूत्रकृमियों का प्राय: नाश हो जाता है। इनके द्वारा होने वाले मृदाजनित रोगों एवं संबंधित हानियों से बचाव किया जा सकता है।
बुवाई का समय:- 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक। पहले एवं बाद में बोवनी से बीज उत्पादन प्रभावित होता है।
बीज दर:- किस्मों के आधार पर 10 से 16 किलाग्राम बीज प्रति हेक्टेयर। सिंचित व असिंचित खेती के लिए 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर।
फसल ज्यामिति:- कतार से कतार की दूरी 25 से 30 सें.मी. और पौधे से पौधे की दूरी 10 सें.मी.। अनुशंसित दूरी पर बुवाई करके बीज को मिट्टी से ढंक दें। छिड़कवां विधि से भी बोवनी की जा सकती है। बोते समय मृदा में नमी नहीं होने पर सिंचाई आवश्यक होती है।
बोवनी के पूर्व बीज को मसलकर दो भागों में फोड़ लेना चाहिए। मृदा में नमी कम होने की स्थिति एवं शीघ्र अंकुरण हेतु बीजों को 12-24 घण्टे पानी में भिगोकर बोना लाभप्रद होता है। बिना भिगोये बीजों का अंकुरण लगभग 3 सप्ताह में होता है। बीज उपचार के लिए मैंकोजेब + कार्बेन्डाजिम (3 ग्राम दवा प्रति किलो बीज) का प्रयोग किया जा सकता है।
धनिया की उन्नत किस्में:- धनिया की पंत हरितिमा किस्म हरी पत्ती के लिए तथा गुजरात धनिया-1 व -2, सिन्धु, राजेन्द्र स्वाति बीज उत्पादन के लिए और कोयम्बटूर-1, -2 व -3 बीज तथा पत्ती दोनों के लिए अच्छी पाई गई है। इसके अलावा अजमेर कोरियण्डर-1 (एसीआर-1), अजमेर कोरियण्डर-2 (एसीआर-2), अर्का ईशा, आर.सी.आर-41, आर.सी.आर.-435, आर.सी.आर.-436, आर.सी.आर.-684, आर.सी.आर.-446 प्रजातियाँ भी हैं।
अजमेर कोरियण्डर-1 (एसीआर-1):- राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केन्द्र द्वारा विकसित यह प्रजाति संपूर्ण भारत में सिंचित क्षेत्र में खेती के लिए उपयुक्त है। देर से परिपक्वता अवधि होने के कारण यह ताजे धनिया पत्ती व बीज दोनों के लिए उपयुक्त है। यह प्रजाति 10 से 12.50 क्विंटल प्रति हेक्टेयर बीज का उत्पादन देती है। दाने मध्यम से छोटे आकार के होते हैं। बीज में तेल की मात्रा 0.4 से 0.5 प्रतिशत होती है। यह प्रजाति स्टेम गाल कीट और पाउडरी मिल्ड्यू रोग प्रतिरोधी है।
अजमेर कोरियण्डर-2 (एसीआर-2):- राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केन्द्र द्वारा विकसित यह प्रजाति प्रचलित प्रजातियों की तुलना में 10 से 15 दिन पहले तैयार हो जाती है। यह प्रजाति औसत 12.93 क्विंटल प्रति हेक्टेयर बीज का उत्पादन देती है। इसके बीज में तेल की मात्रा 0.54 प्रतिशत है। इसमें लिनालूल 71.70 प्रतिशत है। यह प्रजाति स्टेम गाल कीट के प्रति अधिक प्रतिरोधी है।
अर्का ईशा:- यह प्रजाति भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान द्वारा विकसित की गई है। यह मल्टीकट प्रजाति है अर्थात् इसकी धनिया पत्ती कई बार काटी जा सकती है। पौधे छाड़ीनुमा होते हैं। पत्तियाँ चौड़ी होती हैं। पत्तियाँ अच्छी सुगंध देती हैं। यह प्रजाति 21 दिनों तक फ्रिज में रखी रहने पर भी ताजी बनी रहती है। इसमें विटामिन सी 167 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम एफडब्ल्यू है। 70 दिन में तीन बार कटाई में यह प्रजाति 12 टन प्रति हेक्टेयर की उपज देती है।
खाद व उर्वरक प्रबंधन:- अच्छे उत्पादन हेतु 5-10 टन गोबर खाद या कम्पोस्ट की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही साथ 80 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 60 कि.ग्रा. फॉस्फोरस एवं 40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से दिया जाना चाहिए।
नत्रजन की आधी मात्रा एवं फॉस्फोरस तथा पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा अन्तिम जुताई के समय खेत में अच्छी तरह मिला देनी चाहिए और शेष मात्रा बुआई के 30 एवं 60 दिनों के बाद टॉप ड्रेसिंग के रूप में सिंचाई के साथ देनी चाहिए।
असिंचित खेती में नाइट्रोजन को बोते समय (50 प्रतिशत) एवं एक माह बाद (50 प्रतिशत) दिया जाना चाहिए। फसल में राइजोबैक्टीरिया जैव उर्वरक तथा ट्राइकोन्टेनाल या एन.ए.ए. वृद्धि नियामक पदार्थों के उपयोग से उत्पादन में वृद्धि देखी गई है।
निराई-गुड़ाई:- बोवनी के 15 एवं 40 दिन बाद हाथ से निंदाई कर खेत खरपतवार रहित रखें। रासायनिक विधि में पेण्डीमेथेलीन 1.0 मि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर को बोवनी के समय प्रयोग किया जा सकता है। या ऑक्सीडाइआर्जिल का बुआई के बाद तथा बीज अंकुरण से पहले 75 ग्राम नियंत्रण प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए। तदुपरान्त बुवाई के 45 दिनों बाद गुड़ाई करनी चाहिए।
सिंचाई एवं जल निकास:- बोवनी के बाद एक सिंचाई तथा बाद में मौसम एवं भूमि के प्रकार के अनुसार 15-20 दिन के अंतराल से सिंचाई करें।
सिंचाई एवं जल निकास:- कुल 4 सिंचाई पर्याप्त है। पहली सिंचाई बोवनी के बाद, दूसरी बुवाई के 30-35 दिन बाद, तीसरी 60-65 दिन बाद एवं चौथी सिंचाई 80-85 दिन बाद करनी चाहिए। यदि मृदा में नमी है और सिंचाई के पर्याप्त साधन नहीं हैं तब पहली सिंचाई बुवाई के 30 से 35 दिन बाद करके सिर्फ तीन सिंचाई करें। ध्यान रहे कि खेत में पानी अनावश्यक जमा नहीं हो सके। पानी ठहरने की स्थिति में जल निकासी करते रहें। 25-30 प्रतिशत पानी बचाने के लिए बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति का उपयोग करना चाहिए।
कीट नियंत्रण:- धनिया में प्रमुख रूप से मैनी कीट का प्रकोप फसल की फूल आने वाली अवस्था में होता है। इस कीट के शिशु एवं वयस्क पुष्पक्रम एवं कोमल शाखाओं पर बैठकर रस चूसकर नुकसान पहुंचाते हैं, जिसकी वजह से फल कम संख्या में लगते हैं। इस कीट की रोकथाम हेतु डाइमेथोएट या ऑक्सीमिथाइल डेमेटान दवा का 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी के हिसाब से छिड़काव करें।
माहू या एफिड:- डाइमेथोएट 0.03 प्रतिशत ओर इमिडाक्लोप्रिड 0.003 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए।
तना पिटिका (स्टेम गाल) रोग:- तना पिटिका रोग प्राटोमाइसिस मैकोस्पोरस कवक से उत्पन्न होता है। इस रोग के लक्षण पौधे के तने, पत्ती, फल एवं फूल पर प्रदर्शित होते हैं। लक्षण अधिक वृद्धि के रूप में दिखाई देते हैं। शुरूआती अवस्था में रोग के प्रभाव से तना पीला होने लगता है। मिट्टी के पास से प्रभावित तने पर छोटी-छोटी उभरी हुई पिटिकायें दिखाई देने लगती हैं। ये कुछ समय के बाद भूरे रंग की हो जाती हैं। पिटिकायें अर्धगोले के रूप में फसल की बढ़वार के साथ-साथ बढ़ती जाती हैं जिससे पूरे तने पर लम्बी धारी प्रतीत होती है।
रोग का प्रकोप तने के ऊपरी हिस्से में होने पर पूरा पौधा एक तरफ मुड़ कर विकृत हो जाता है और रोग से प्रभावित पौधे हंस की गर्दन की तरह हो जाते हैं। पत्तियों पर रोग का प्रभाव होने से पर्णवन्त एवं शिरायें सामान्य से मोटी एवं उभरी प्रतीत होती हैं। पुष्पवृन्त अधिक फूल जाते हैं और फूल कम बनते हैं। फलों का आकार सामान्य से बड़ा हो जाता है। तैयार बीज किसी प्रकार उपयोग के लायक नहीं रहते हैं।
माहू या एफिड रोग नियंत्रण:- 1. खड़ी फसल में रोग आने की स्थिति में किसी भी रसायन का उपयोग बहुत प्रभावकारी नहीं होता है। 2. धनिया की फसल की बुवाई अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में करने से रोग का प्रकोप कम होता है। 3. बोने के पूर्व बीज का उपचार कार्बेण्डाजिम से करना चाहिए। रोग से बचाव हेतु खेत में फसल की 60 दिन की अवस्था में दवा का छिड़काव करें। 4. खेत से रोगी पौध अवशेषों को उखाड़कर जला देना चाहिए। 5. रोगग्रसित खेत में दो से तीन वर्ष तक उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए।
2. उकठा (विल्ट) रोग:- यह मृदाजनित रोग है जो फ्यूजेरीयम आक्सीस्पोरम स्पे. कोरियंडाई नामक फफूँद द्वारा होता है। उकठा रोग से प्रभावित पौधे शुरू में पीले पडऩे लगते हैं और कुछ ही दिनों में इनका शीर्ष मुरझाकर सूख जाता है और पौधा मर जाता है। रोग उग्र रूप में न हो, तब भी आंशिक मुरझान की स्थिति देखी गई है, जिससे पौधे की वृद्धि रूक जाती है और पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं। इन पौधों में आंशिक बन्ध्यता पाई जाती है। इन पौधों में बीज बनने के बावजूद बीज अपरिपक्व एवं हल्के रहते हैं, जिससे बीज का उपयोग अगली फसल के लिए नहीं किया जा सकता। बीज का उपयोग मसाले के रूप में भी नहीं होता है।
उकठा रोग नियंत्रण:- 1. तीन वर्षीय फसल चक्र अपनाना चाहिए। 2. बीज को बुवाई पूर्व कार्बेण्डाजिम या थायरम 1.5 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करें। 3. खेत में लक्षण दिखाई देने पर कार्बेण्डाजिम का छिड़काव करें। 4. एक किलोग्राम ट्राइकोडर्मा विरडी को 2.5 क्विंटल अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर खाद में मिलाकर 10 दिन रखने के बाद खेत में अच्छी तरह मिलाने के बाद बुवाई करें। 5. गर्मी की जुताई अवश्य करें एवं खेत को खाली छोड़ दें। ऐसा करने से खेत में सौर उपचार से मृदाजनित फफूँद की कवक नष्ट हो सकती है।
3. अल्टरनेरिया धब्बा रोग:- इस बीमारी का प्रकोप पत्तियों पर बहुत होता है जिससे हरी पत्तियों का बाजार भाव कम हो जाता है। बीज बनने की अवस्था में फसल पर भी इसका काफी प्रकोप होता है जिससे बीज की गुणवत्ता में कमी आती है। इस रोग के कारण पत्तियों पर गोलाकार गहरे हरे भूरे रंग के छोटे-छोटे धब्बे बनते हैं जो आपस में मिलकर चित्ती का रूप धारण कर लेते हैं। इनके लक्षण पर्णवृन्तों, तनों एवं बीज आवरण पर भी पाये जाते हैं। रोग की उग्रता की स्थिति में पूरा पौधा झुलसा प्रतीत होता है।
अल्टरनेरिया धब्बा रोग नियंत्रण:- 1. कार्बेण्डाजिम 3 ग्राम प्रति किलो बीज के हिसाब से बीज का उपचार करके बुवाई करना चाहिए। 2. खड़ी फसल में रोग आने की स्थिति में मैंकोजेब 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी के हिसाब से मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।
4. भभूतिया या चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू) रोग:- इस रोग के लक्षण सर्वप्रथम पौधे की पुरानी पत्तियों पर सफेद चूर्ण के रूप में दिखाई देते हैं। रोग का विकास इतना तीव्र होता है कि 10-15 दिन में पौधों के सभी भाग (पत्तियों, तनों एवं बीजों) सफेद पावडर के समान संरचना से ढंक जाते हैं। यह सफेद चूर्ण रोगजनक की फफूँद के कवकजाल एवं बीजाणुओं का समूह होता है। रोगजनक चूंकि पौधे की ऊपरी सतह पर बनते हैं इसलिए इसका प्रसार तीव्र गति से होता है। पौधे के प्रभावी भाग पर सफेद चूर्ण होने के कारण प्रकाश संश्लेषण की क्रिया नहीं हो पाती है जिससे फसल पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
तापक्रम के बढऩे के साथ सफेद चूर्ण के स्थान पर काली छोटी बिन्दु की तरह संरचनायें दिखाई देती हैं जिसे क्लिस्टोथीसिया कहते हैं जो रोगजनक को आगामी फसल तक सुरक्षित रखता है।
चूर्णिल आसिता रोग नियंत्रण:- 1. रोगी पौधे के अवशेषों को जला देना चाहिए। 2. घुलनशील सल्फर की 2 ग्राम मात्रा या कार्बेण्डाजिम की 1 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी के हिसाब से रोग की प्रारंभिक अवस्था में छिड़काव करना चाहिए। 12 से 15 दिन बाद इस दवा का पुन: छिड़काव करना चाहिए।
5. छाछया रोग:- 20 से 25 किलोग्राम सल्फर पाउडर का खड़ी फसल पर भुरकाव किया जाना चाहिए या 0.2 प्रतिशत भीगने वाले सल्फर या 0.1 प्रतिशत डाइनोकेप का छिड़काव करना चाहिए।
6. झुलसा रोग:- फफूँदनाशक प्रोपिकोनाजोल 0.1 प्रतिशत या कार्बेण्डाजिम 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव रोग आने से पूर्व भी 12-15 दिनों के अन्तराल पर किया जाना चाहिए।
कटाई:- फसल के दाने पीले पड़कर भूरे रंग के होने लगें, तब कटाई करें। सामान्यतया फसल की पकने की अवधि अनुसार कटाई करते हैं।
उपज:- सिंचित खेती में 18-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर एवं बारानी खेती में 6 से 8 क्विंटल प्रति हेक्टेयर।
मसाला फसल धनिया की उन्नत खेती